पत्रकार अंकित पचौरी की रिपोर्ट के अनुसार, सहरिया, बैगा और भारिया जैसी विशेष पिछड़ी जनजातियाँ आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी हुई हैं। इनके जीवन में संवैधानिक मूल्यों की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
भोपाल। मध्य प्रदेश की विशेष पिछड़ी जनजातियों (PVTGs) पर एक गंभीर शोध परियोजना के तहत किए गए काम से इन समुदायों की दयनीय स्थिति उजागर हुई है। यह स्टडी पत्रकार अंकित पचौरी द्वारा वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राजेश बादल के मार्गदर्शन में तैयार की गई ।जानी मानी स्वयंसेवी संस्था विकास संवाद की फैलोशिप योजना के अंतर्गत यह शोध कार्य किया गया। 124 पन्ने की फील्ड स्टडी रिपोर्ट में तीन प्रमुख जनजातियों—सहरिया, बैगा, भारिया —की गंभीर समस्याओं और संवैधानिक अधिकारों से उनके वंचित होने पर गहन पड़ताल की है। रिपोर्ट ने राज्य सरकार की नीतियों और योजनाओं की जमीनी हकीकत पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
जानिए रिपोर्ट में क्या?
आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन: रिपोर्ट के अनुसार, सहरिया, बैगा और भारिया जैसी विशेष पिछड़ी जनजातियाँ आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी हुई हैं। इनके जीवन में संवैधानिक मूल्यों की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) जैसे महत्वपूर्ण प्रावधान कागजों पर तो इन जनजातियों के लिए लागू हैं, पर वास्तविक जीवन में यह अधिकार इन्हें प्राप्त नहीं हो रहे हैं।
शिक्षा में पिछड़ापन
रिपोर्ट में शिक्षा की कमी को इन जनजातियों की सबसे बड़ी समस्या के रूप में उजागर किया गया है। इन समुदायों के लोगों के लिए शिक्षा ही एकमात्र मार्ग है, जिसके माध्यम से वे अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकते हैं। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों में संवाद करने की वजह से इन जनजातियों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सरकारी शैक्षणिक कार्यक्रम भी इन समुदायों तक पूरी तरह से नहीं पहुँच पा रहे हैं, जिसके कारण वे संवैधानिक अधिकारों का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।
स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
संवैधानिक अधिकारों के बावजूद, विशेष पिछड़ी जनजातियों को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पा रही हैं। जननी सुरक्षा योजना, आयुष्मान भारत योजना जैसी सरकारी योजनाओं का लाभ इन जनजातियों को सीमित रूप से ही मिल रहा है। इसकी वजह इन समुदायों की जागरूकता की कमी और दूरदराज़ के इलाकों में इनकी स्थिति को माना जा रहा है।
आजीविका और वन अधिकार
इन जनजातियों की आजीविका मुख्य रूप से वनों पर निर्भर है। वन संरक्षण के नाम पर इनके पारंपरिक अधिकारों का हनन हो रहा है। वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत इन्हें वनों पर अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन इसका जमीनी स्तर पर पालन नहीं हो रहा है। यह न केवल अनुच्छेद 19 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) बल्कि अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है, जो सम्मानजनक जीवन का अधिकार प्रदान करता है।
संवैधानिक और सरकारी उपेक्षा
संविधान का अनुच्छेद 46 अनुसूचित जातियों और जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा की बात करता है। इसके बावजूद, इन जनजातियों को अभी तक सरकार की योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पाया है। रिपोर्ट ने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (अनुच्छेद 338A) की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं, जिसकी सिफारिशों का सही क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। इसके अलावा, मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग में पिछले तीन वर्षों से कोई नियुक्ति नहीं हुई है, जिससे इन जनजातियों की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं।
भविष्य की चुनौतियाँ और समाधान
अंकित पचौरी की इस ग्राउंड स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार और समाज को मिलकर इन विशेष पिछड़ी जनजातियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और आजीविका के क्षेत्रों में ठोस कदम उठाने होंगे। इन जनजातियों के लिए संवैधानिक अधिकार केवल कागजों पर नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर लागू होने चाहिए, ताकि ये समुदाय भी समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें।
अंकित पचौरी की फील्ड स्टडी रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि आदिवासी समाज में बुनियादी सुविधाओं और संवैधानिक अधिकारों का अभाव है। पचौरी का मानना है, कि जो स्थिति हम ऊपर से देखते हैं, हकीकत उससे कहीं अधिक गंभीर है। आदिवासी समाज समाज की मुख्य धारा से कई कोसों दूर है, और वे देश के सर्वाधिक पिछड़े वर्गों में आते हैं।
संविधान और आदिवासी जीवन
पचौरी ने अपनी स्टडी में बताया कि इस फील्ड वर्क को समझने में उन्हें वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राजेश बादल का मार्गदर्शन मिला। इसके साथ ही, उन्होंने विकास संवाद के सचिन जैन की किताब “जीवन में संविधान” को पढ़ने का उल्लेख करते हुए कहा कि इस पुस्तक ने उन्हें आदिवासी जीवन में संवैधानिक अधिकारों और खुद के जीवन में संवैधानिक मूल्यों को गहराई से समझने का अवसर दिया।